आइने में अपना शहर देखते हैं- ग़ज़ल

आइने में अपना शहर देखते हैं
हम उसी की आँखों में घर देखते हैं

यूँ गया दूर वो, नज़र भर न देखा
अब आती-जाती हर नज़र देखते हैं

कितने नादाँ हैं ऐसी आँखों के सपने
क़ैद में है, तब भी सफ़र देखते हैं

मौत तो ज़ाहिर है आज़ाद फिरती है
ज़िन्दगी को घुटती बसर देखते हैं

इतने पे भी हमें मौत क्यूँ न आयी
माँ की दुआओं में असर देखते हैं

रश्क़ होता है हमें, ‘बेबार’ जब जब
हम बैया के आज़ाद पर देखते हैं

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