घर झगड़ा

नक़ली हँसी की कोशिश झूट-मूट जाती है
माँ को रोता देखूँ तो किस्मत फूट जाती है

घर के पहिये जब अलग अलग भागें
तो गाड़ी की रफ़्तार अक्सर छूट जाती है

बच्ची जब माँ को घर में पिटते हुए देखे
तो बाप की तस्वीर दिल से टूट जाती है

सुनहरे कप हों या झूमर कुछ नहीं भाता
इक दूजे से उखड़ी हर शाम रूठ जाती है

जहाँ दोनों की उंगली थाम चला था मैं
वो आँगन, हिस्सों की हवा लूट जाती है
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खुशहाल न हो घर, तो किसी दर जाओ
उसी दर पे मानो क़िस्मत फूट जाती है

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