जीना तो हो गया जैसे-तैसे
सवाल ये है कि ‘मरना’ कैसा होगा
बीमारी से ?
ठीक वैसे ही जैसे अमीरों को मौत आती है,
स्ट्रेचर लेकर दौड़ते हुए,
वेंटिलेटर का पाइप पकड़े हुए
खाँसी बुख़ार होगा, दम घुटेगा
लाश न मिलेगी, दाह-मातम न होगा
और एक सैनीटाइज़्ड प्लास्टिक बैग बैग में
ये शरीरअरसे तक क़ैद रहेगा।
अगर बीमारी से नहीं, तो क्या
मौत होगी भूख से ?
तीन दिन से काम मिला नहीं है
घर का चूल्हा जला नहीं है
कल तो कुछ दाने बीन के खाये थे
मगर आज शाम का पता नहीं है
मजबूरी में पलायन करना पड़ेगा
मीलों का सफ़र पैदल चलना पड़ेगा
मालिक के नंबर पे छोटी का फ़ोन आया
बोली माँ बहुत बीमार है
आख़िरी दफ़ा देखना चाहती है
मैंने समझाया छोटी लॉकडाउन है
बोली माँ ऐसे मरेगी तो काहेका टाउन है
सवाल वही है,
अगर, बीमारी नहीं, भूख नहीं
तो क्या मरेंगे गर्मी-धूप से ?
जेठ महीने में होगा सिर पे कट्टा या बोरा
पैरों में ख़ून के छाले उठेंगे
सूरज माथे के रास्ते अंदर उतरेगा
पेट में रह रहके शोले अंगारे भड़केंगे
और आँखें नटर जाएंगी
होठों की पपड़ी खुरचने लगेगी
गर्दन एक तरफ़ अकड़ने लगेगी
ठीक उस छोटे से बच्चे की माफ़िक
दो रोज़ पहले जो चला था यहाँ से,
लाश को माँ-बाप ने कई मीलों तक लादा
दूजी छोटी लड़की को भी गोद से उतारा
फिर बच्ची जब ज़ोरों से हाँफने लगी
माँ के सीने में धड़कन कांपने लगी
बाप ने हूक भरी और टेक दिए घुटने
बच्चे को ईंटों के भट्टे में दबाकर
वो मज़दूर, वो बेबस, ईंटा चबाकर
चल दिए गाँव अपने बदन को ढोकर
ये सब तो बहुत पहले ही मर चुके थे
बस दफ़नाने को अपनी मिट्टी की ख़ातिर
चले जा रहे हैं हज़ारों मीलों की दूरी
जीना तो हो गया अलग अलग शहरों में रहकर
भीड़ में घुटकर, ज़िन्दगी में बंधकर
अब देखना यही है कि मरना कैसा होगा
सपनों के क़रीब, या अपनों से दूर
घर की छत मय्यसर होगी
या सड़कों की धूल अटेगी
जीना तो हो गया जैसे तैसे,
सवाल ये है कि मरना कैसा होगा।
~ प्रशान्त ‘बेबार’