कभी कभी मुझे रश्क़ होता है
उन लोगों से जो
मुँहफट होकर कहते हैं
“माफ़ कीजिये, गहरी नींद लग गयी थी”
सोचता हूँ
क्या करते हैं लोग दिन भर
मैं भी तो इक पल चैन से न बैठा
भाग-दौड़-धूप, इंतज़ाम और काम
शाम आती है तो रात का सबब
फिर आधी रात को उठकर
बचपन की तस्वीर में देखकर ख़ुदको
बेफ़िक्र सोता हुआ मन तरस जाता है
रश्क़ होता है उस आदमी से
जो भीड़भाड़ भरे स्टेशन पे
पीं-पों के शोर में,
धक्का मुक्की में बिछा के बिछोना
सो रहा है, खोलकर मुँह तिरछा कर पैर।
और यहाँ मेरे ख़ाली सन्नाटे सोने नहीं देते
जी मैं आता है कि लेकर एक चादर
लगाकर कुंडी निकल जाऊँ
बगल वाले स्टेशन पे
किसी ऐसे ही आदमी के बिछोने से सटकर
बिछालूँ अपनी भी चादर
और उसकी नींदों की आग से
मेरे सिरहाने भी सुलग जाएँ।