“आराम से…आराम से पैर रखना, देख कर …नीचे सीढ़ी है”, अक्षत अपनी बीवी आरती को बाँह से पकड़ कर सहारा देते हुए बालकॉनी में ले जाता है । आरती बेफ़िक्री की साँस भरते हुए कहती है, “हाँ बाबा, देख लिया । इतनी चिंता मत किया करो मेरी”। इतना कहकर ठिठोली ली उसने । अक्षत आँखे मिचका कर बोला, “बस एक महीना और फिर नहीं बनूँगा तुम्हारी आया, खुश ?” अक्षत ने आरती के उभरे पेट पे प्यार से हाथ फेरा । दोनों छोटे बच्चों की तरह खिलखिलाने लगे ।
फ़ोन की घंटी बजी तो अक्षत आरती को बालकॉनी में कुर्सी पे बिठा कर अंदर आ गया । थोड़ी देर बाद कमरे से निकला तो चेहरे पे बारह बजे हुए थे । आरती ने पूछा, “क्या हुआ ? किसका फ़ोन था ?”
अक्षत ने भारी मन से जवाब दिया, “ऑफिस से ! अगले प्रोजेक्ट के लिए बाहर जाना पड़ेगा, काबुल ! वो भी सोमवार की फ्लाइट है यानी कि तीन दिन बाद । सुरेंद्र सिंह की तबियत बिगड़ गयी है तो उसकी जगह मुझे जाना पड़ेगा, क्योंकि उसके अलावा इस ऑफिस में बस मुझे ही पश्तो और दारी भाषा आती है” । आरती ने समझाया कि अक्षत अपना दिल छोटा न करे, यहां दो दिन बाद उसकी माँ आ रहीं है और वैसे भी यूनिसेफ की नौकरी में तो ऐसे जाना ही पड़ता है जैसा कि उसने शुरू में आरती को समझाया था । तीन दिन कब गुज़रे पता ही नहीं चला ।
फ्लाइट में बैठे-बैठे भी अक्षत के मन में एक ही बात हिलोरें ले रही थी कि डिलीवरी के वक़्त वो आरती के क़रीब नहीं बल्कि मीलों दूर अफ़ग़ानिस्तान में होगा । हवाई जहाज़ में बैठो तो सरहदों का एहसास नहीं होता वरना ज़मीन पर तो हर नाके पे मुहरें लगवानी पड़ती हैं । दो ही घंटे में बैनर और पोस्टर्स हिंदी-अंग्रेज़ी से फ़ारसी में तब्दील हो गए ।
काबुल पहुंच कर यूनिसेफ दफ़्तर में अक्षत ने सारी जानकारी इकट्ठी की । उस रात बस आरती का हालचाल पूछा और इत्तेला कर दिया कि “उसका अस्सिटेंट शहनाज़ अच्छा इंसान है। कल सुबह उन्हें तीन सौ मील दूर बदघीस नाम की जगह के लिए रवाना होना है । शहनाज़ कंधार का रहने वाला है और काबुल में ही यूनिसेफ के दफ़्तर में काम करता है ।
अक्षत जब आसिस्टेन्ट शहनाज़ के साथ अगली सुबह कैम्प के लिए रवाना हुआ तो किताबों और हक़ीक़त के बीच का फ़ासला साफ़ झलक रहा था । गृह-युद्ध इससे पहले या तो अख़बारों में पढ़ा था या विदेशी ख़त-ओ-कतबत में । शहनाज़ ने बड़ी संजीदगी से बताया कि यहां के बच्चे हिंसा के गहरे शिकार हैं। ग़रीबी और भुखमरी ने बच्चों की ज़िंदगी को कुतर-कुतर के बहुत छोटा कर दिया है। यहाँ क़लम बहुत भारी है इतनी भारी, कि बंदूक उठाना कहीं ज़्यादा हल्का लगता है । इसके बाद भी अगर कोई कसर रह जाती तो तालिबान पूरी कर देता है । लड़कियों के हाथ की लकीरें पूरी तरह उभरने से पहले ही उनके हाथ काले कर दिए जाते हैं। ये सब सुनकर अक्षत का दिल बैठा जा रहा था । ख़यालों की उधेड़बुन और सफ़र की वजह से उसकी आँख लग गई। कुछ देर बाद अक्षत का फ़ोन बजा । गाड़ी में झपकी लेते सभी लोगों की आँखें खुल गईं । देखा तो आरती का मैसेज था, लिखा था कि मम्मी आ गयी हैं, डॉक्टर का चेकअप अच्छा रहा, तबियत ठीक है और “हाँ, अब तो ज़ोर ज़ोर से लात भी मारता है”
अक्षत ने आँखों से मुस्कुराकर लिखा, “तुम्हें बड़ा पता है कि मारता है ? मारती हुई तो ??”
“मुझे पता है, जी हाँ!” आरती ने जवाब में लिखा ।
अक्षत के होठों पे मुस्कान खिंच गई। तभी शहनाज़ ने अक्षत के कंधे पे धीमे से थपकी रखकर कहा, “सर…सर.. बदघीस कैम्प पहुंच गए”।
गाड़ी से उतर कर अक्षत ने एक ज़ोर की अंगड़ाई ली । गाड़ी रुकते ही पाँच छह बच्चों का एक गुट थोड़ा नज़दीक आकर जमा हो गया। फिर अक्षत ने जो देखा उस मंज़र ने उसे झकझोर कर रख दिया ।
चारों तरफ़ बिखरे हुए लोग और यतीम बच्चे। प्लास्टिक और दरी के शामियानों में सिकुड़ी ज़िंदगी, और हर आँख में यही उम्मीद कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। कहीं छह बरस की बच्ची ख़ून-ख़राबे से बदहवास थी तो किसी लड़के का पेट पीठ से चिपक गया था । जब अक्षत के हाथ से एक खाने का पैकेट गलती से गिरा तो गुट के सब बच्चे एकाएक पीछे हट के सहम गए । जिनके घर आंगन में आए दिन बम्ब ऐसे ही गिरते हों तो वो डरे नहीं तो क्या करें । अक्षत ने फ़ौरन झुककर पैकेट उठाया और हल्की सी मुस्कान के साथ उन बच्चों को बुलाया, “अखलेम दा” । बच्चे खड़े होकर घूरते रहे फिर धीरे धीरे आगे आए । मग़र उन सबके पीछे सहमा हुआ छुप रहा था एक नीली आंखों वाला छोटा सा लड़का । फक्क सफ़ेद चेहरा, नीली आँखें, छोटे से होंठ और झेंपी झेंपी नज़र ।
अक्षत ने पश्तो ज़बां में पूछा, “बच्चे, क्या नाम है तुम्हारा ?” मासूम बच्चा खामोश रहा । इस दफ़ा शहनाज़ ने दोहराया, “डरो नहीं, यहाँ आओ नाम तो बताओ” ।
बच्चे ने धीमे से अल्फ़ाज़ सरकाए, “मुराद ! मुराद नाम है”
सिर्फ़ छह या सात बरस का होगा और जवाब में एक रेशम की सी नरमी थी । हथेली खोलकर बीच की उंगली को बड़ी उंगली पर चढ़ाकर ही हमेशा बात करता । जैसे कहीं गलती से भी कसम न खिला दे कोई । अक्षत और शहनाज़ ने उस गुट के सब बच्चों से धीमे धीमे बातचीत शुरू की तो खिंचाव थोड़ा ढीला पड़ा । सारे मासूम थोड़ा महफूज़ महसूस कर रहे हैं ये उनकी आँखों में दिख रहा था ।
शहनाज़ ने अगले एक हफ़्ते तक यहीं रुकने का इंतज़ाम कर दिया था । कैम्प से थोड़ी दूर में ही सेना की देखरेख में रुकने का इंतज़ाम है । बस सोमवार के सोमवार काबुल दफ़्तर जाकर रिपोर्ट देनी होती है। साँझ ढली तो फैले मैदान में अंधेरा बिख़र गया, बड़ी मामूली सी रोशनी का इंतज़ाम हो सका । देखते ही देखते रात ऐसे हुई जैसे किसी ने पीपे में भर रखी हो और ठोकर लगने से पीपा लुढ़क के रात फैल गयी हो हर तरफ़ ।
आरती से बात करके अक्षत को आराम पड़ा। लेटा लेटा सोच रहा था कि ‘माँ मेवा काली मिर्च के लड्डू लायी हैं, बड़े स्वाद बने हैं’, ये आरती बता रही थी या चिढा रही थी । धीमे से हँसा और करवट लेकर सो गया । सुबह हुई तो अक्षत अपने काम में जुट गया । बदघीस कैम्प में जितने लोग आए थे, सभी का नाम, उम्र, गांव, शारीरिक हालत, मानसिक हालत और अन्य कई बातों का ब्यौरा तैयार किया। आदमी और औरतों के अलावा ज़्यादातर बच्चे या तो डरे सहमे से खुद में खोए रहते या बीमारी में सोते रहते ।
बस नीली आँखों वाला मुराद अक्षत के पीछे पीछे लगा रहता। कुछ कहता नहीं, बस नंगे पैर पीछे पीछे। कई दिन ऐसे ही बीतते रहे। रात में जब भी आरती से बात हो जाती तो जी में चैन आता। जब कभी अमरीकी जवान अपने काम में मशगूल होते तो बात करने के लिए सैटेलाइट फ़ोन नहीं मिल पाता था ।
एक दफ़ा ब्यौरा लिखते में अक्षत की कलम का ढ़क्कन गिर गया तो पीछे खड़े मुराद ने उठा लिया। ढ़क्कन हाथ में उठाया और उलट पलट के बड़े गौर से देखने लगा । ये देख अक्षत मुस्कुराया और क़लम मुराद की तरफ बढ़ा दी । मुराद ने बड़ी तल्लीनता से कलम बन्द की और मुस्कुराकर अक्षत को लौटा दी। मुराद हाथ की उंगलियों को चढ़ाकर खेलने लगा। वैसे ही, बीच की उंगली को बड़ी उंगली के ऊपर रख। अक्षत अक्सर देखकर हैरान होता फिर मुस्कुरा देता, शायद उस मासूम का मन रखने को।
यहाँ एक हफ़्ता बीत गया और उधर आरती को दर्द उठना शुरू हो गए थे । अक्षत जब भी आरती से बात करता तो उसे हिम्मत रखने को कहता और खुद कई घंटों बेचैन सा रहता। आरती की ऐसी हालत में अपने काम का कोई भी ज़िक्र करना उसे मुनासिब न लगा सो कुछ न कहता । अब मुराद भी रोज़ सवेरे अक्षत के साथ ही निकलता जैसे मानो दफ़्तर जा रहा हो, अगर शहनाज़ न भी मौजूद होता तो अक्षत को अब अकेलापन नहीं लगता था । मुराद एक छोटे साये की तरह साथ ही रहता । एक दिन अक्षत ने मुराद से कुछ बच्चों की तुतलाती सी ज़बां में पूछा, ” घर याद नहीं आता ?” नन्हा मुराद सोच कर बोला, “आता है, बहुत !” फिर तो जैसे उसका बांध ही टूट गया । “यहाँ ठंड भी बहुत लगती है, अम्मी की बहुत याद आती है…और …और…अब्बू की भी ! ”
बड़ा मन सा मारकर बोला, “लेकिन यहाँ ठीक है, सुबह उठता हूँ तो शोर नहीं होता, न गोलियों का, न लोगों का। कुछ दोस्त भी तो हैं, ज़ेनाब मुझसे बड़ी है फिर भी ‘तो-नान-नाल’ खेल में हमेशा मेरा साथ देती है । आपके ‘गाँव’ में सुबह उठो तो शोर नहीं होता क्या ?”
उस बच्चे ने अपनी बात खत्म कर ऐसा अजीब सवाल रख दिया अक्षत के सामने । ‘देश’ या ‘मुल्क’ शब्द उसे पता नहीं था शायद, इसीलिए गाँव ही कह दिया। अक्षत अगर सारे अख़बार निचोड़ भी देता तो भी सही सही जवाब नहीं था उसके पास । अक्षत गम्भीर स्वर में बोला ,”नहीं तो । सुबह तो बहुत ही अच्छी है वहाँ । बच्चे पार्क में खेलने जाते हैं”
मुराद तपाक से बोला , “पार्क मतलब ?”
“पार्क माने घास का मैदान, खुला हुआ”
“ओह, अच्छा!”, कहकर मुराद सब ग़ौर से सुनता रहा । फिर बड़े ही भोलेपन से बोला , जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो घूमने आऊँगा वहाँ । अक्षत ने मुस्कुराकर उसके सर पे हाथ फेरा और चला गया ।
अगले दिन अक्षत ने शहनाज़ को बुलाकर सब बच्चों की सारी ख़ैर-ख़बर बताई । वक़्त पे ठीक ढंग से खाना और दवाइयाँ मिलने से अब उनके हालात सुधारने लगे थे । चेहरे पर आई खरोंचें अब सूखने लगी थीं । शहनाज़ ने अक्षत को समझाया की एक और बड़ी समस्या यह है इन बच्चों का किसी राशन कार्ड या सरकारी दस्तावेज़ों में नाम और पहचान दर्ज नहीं है । इसीलिए अफ़ग़ानी हुकूमत के लिए इनका कोई वजूद नहीं है । अगर इनका नाम सरकारी फ़ेहरिस्त (लिस्ट) में आ जाए तो आगे आने वाले वक़्त में इनको खाना, दवाएँ और छत मुहैया करवाना आसान होगा । अक्षत समझ गया कि बचे हुए दो हफ़्तों में यही उसकी जंग है, लेकिन ये आसान नहीं होगा । अक्षत ने पहले गुट के बच्चों का नाम , उम्र और यहाँ कैम्प तक पहुँचने की घटना को सुबूत और ख़बरों के साथ जमा कर के फ़ाइल तैयार कर ली । इसी दौरान शहनाज़ ने उसे बताया कि मुराद अपने गाँव में गिरे मोर्टार से अकेला इसीलिए बच गया क्यूँकि मुराद गोली-बारूद का शोर सुनके कीचड़ और मिट्टी से भरे गड्ढे में कूद गया और ख़ुद को वहीं दबा लिया । बाद में अमरीकी सेना ने उसे यूनिसेफ़ के हवाले किया । यह सब सुनकर अक्षत हैरानी से मुराद के चेहरे की तरफ़ देखता है । फिर गहरी साँस ली और उठकर कमरे से चला गया । अगले ही दिन पाँच बच्चों की टीम बना कर नाम दर्ज की अर्ज़ी डाली अफ़ग़ानी सरकारी दफ़्तर में । अब बदघीस से काबुल के चक्कर और भी बढ़ गये । तीन सौ मील की दूरी का सफ़र और सरकारी दफ़्तरों के नख़रे , अक्षत को निचोड़े जा रहे थे । आरती के मैसैज का जवाब देना भी कभी कभी मुश्किल हो जाता । किसी भी दिन आरती को हस्पताल में भर्ती करने की ख़बर आ सकती थी । अक्षत पूरी कोशिश कर रहा था कि उसके घर आने वाली नन्ही ज़िंदगी को वो जितना जल्दी हो सके अपनी गोदी में ले लेकिन यहाँ मुराद और बाक़ी बच्चों को एक अच्छी ज़िंदगी देने का वादा भी तो निभाना था ।
चूँकि यूनीसेफ़ का सहारा था और पश्तो ज़बान का साथ, अफ़सर नाम और पहचान दर्ज करने के लिए राज़ी हो गया। अब आख़िरी हफ़्ता ख़त्म होने में तीन ही दिन बाक़ी थे । मुराद की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्यूँकि अब गाड़ी में बैठकर सैर करने को मिलेगा और अक्षत ने सब बच्चों को वादा किया था कि काबुल में सबका फ़ोटो खिंचेगा । सब बच्चे सुबह जल्दी तैयार होकर गाड़ी में बैठने लगे । तभी आरती के फ़ोन से मेसैज आया कि, दर्द बढ़ रहा है आरती को हस्पताल लेकर जा रहे हैं । अक्षत समझ गया की माँ ने लिखा है , मगर रास्ते में बात हो पाना मुमकिन नहीं था इसीलिए लिख दिया कि काबुल में होटल पहुँच कर बात कर पाएगा , जो भी ख़बर हो देते रहें ।
गाड़ी में मुराद अक्षत के बाज़ू में ही बैठा रहा । नींद आई तो उसी की बाँह पकड़ कर सो गया । काबुल पहुँचने में रात हो गई, सब यूनीसेफ़ दफ़्तर पहुँचे । अक्षत का फ़ोन भी बंद हो गया था । सब थकान के मारे वहीं पर सो गए ।अगली सुबह ठीक दस बजे अक्षत शहनाज़, मुराद और बाक़ी के चार बच्चों को लेकर सरकारी दफ़्तर पहुँच गया, उन्हें उनका वजूद दिलाने । अफ़सर ने सब बच्चों को खाना खिलाकर बिठा दिया और बता दिया की सारे काग़ज़ बनाने में वक़्त लगेगा । मुराद बेंच पर बैठा बड़ी इमारतें और साफ़ सड़क ताक रहा था । बिलकुल बेफ़िकर और बेहद ख़ुश ।
अक्षत शहनाज़ को बाक़ी की चीज़ें समझकर अपने होटेल के लिए निकल गया । होटेल एक घंटे की दूरी पर था, पर अब ये एक घंटा काटे नहीं कट रहा था । आरती की तबियत का ख़याल और उसका बंद फ़ोन उसे बेचैन किए जा रहा था। होटल पहुँच कर फ़ौरन फ़ोन चार्ज कर आरती को फ़ोन मिलाया लेकिन वहाँ किसी ने उठाया नहीं। मन में अजीबोग़रीब सवाल आने लगे लेकिन जैसे तैसे मन को समझा कर हाथ मुँह धोने चला गया । एक तरफ़ आरती और आँगन में आने वाली नई किलकारी की फ़िक्र थी तो दूसरी तरफ़ मुराद और बाक़ी बच्चों को मिलने वाली बेहतर ज़िंदगी की ख़ुशी ।
अचानक थोड़ी देर बाद उसका फ़ोन बजा । दौड़ कर पहुँचा और गीले हाथों से ही फ़ोन उठाकर हड़बड़ाया, “आरती !”
उधर से माँ की आवाज़ आई , बेटा अक्षत , आरती बिलकुल ठीक है , और बधाई हो बेटा , तू बाप बन गया । प्यारा सा बेटा हुआ है और मैं दादी बन गयी ।
अक्षत की आँखों से ख़ुशी के आँसूँ फूट पड़े । आँखों के पोरों में लम्हे इक्कठे होने लगे । बस आँखें बंद कीं और अपनी गोदी में महसूस किया । “ले बेटा आरती से बात कर”, कहकर माँ ने फ़ोन आरती के कान पे लगा दिया ।
अक्षत भरे गले से बोला, “आरती तुम ठीक तो हो ना ?” आरती ने बड़ी राहत में जवाब दिया , “हाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ और ये छोटू सा बदमाश भी बिलकुल ठीक है । देखा मैं कहती थी ना कि लड़का होगा।” अक्षत हँस दिया ।
आरती फ़ोन पर , “देखलो अपने सपूत को , दोनों हाथों की उँगलियाँ चढ़ा रखी हैं , बीच की ऊँगली को बड़ी ऊँगली पर । बदमाश कहीं का …. ऑऑ”
अक्षत की सिकुड़ी भोहें खुल गयीं । पलक नहीं झपकीं , रुककर बोला , “एक मिनट होल्ड पे रहो ।” होटल के फ़ोन से काबुल के सरकारी दफ़्तर में फ़ोन लगाया । घंटी गयी पर किसी ने उठाया नहीं। पता नहीं क्या मन में आया और टीवी खोली । ब्रेकिंग न्यूज़ चिल्ला रही थी :
“काबुल के सरकारी बिल्डिंग में आतंकी हमला, पंद्रह अफ़सर समेत पाँच बच्चों की मौत । बच्चों की शिनाख्त नहीं, अज्ञात में शामिल”
अक्षत के होंठ कंपकपा गए । आरती ने तो सही सलामत बच्चे को जनम दे दिया था लेकिन अक्षत का ‘मिसकैरिज’ हो गया। उम्मीद से प्यासा बैठा था पर हलक तक सूख़ गया। उधर फ़ोन पे आरती इस सब से बेख़बर हँसते हुए पूछती है, “क्या हुआ डैडी जी ? नाम सोच रहे हो क्या ?”
अक्षत ने जवाब दिया , “हाँ…… मुराद !”
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ⓒ Prashant Bebaar 2019