जिस मानिंद ये ग़ज़ल

जिस मानिंद ये ग़ज़ल, पढ़ रहा हूँ मैं
अंदर अंदर और गहरा बढ़ रहा हूँ मैं

तुझसे जीत भी गया तो हार जाऊँगा
तेरी शक़्ल में ख़ुद से झगड़ रहा हूँ मैं

लोग यहाँ मेरी हर बात से जलते हैं
ज़रूर अब बुलंदियाँ, चढ़ रहा हूँ मैं

माथे पे अक्सर ही, सिलवटें रहती हैं
हाँ तक़दीर में तेरा नाम, गढ़ रहा हूँ मैं

इन हथेलियों में ये कैसी जंग है ‘बेबार’
ख़ुद अपनी ही लकीरों से लड़ रहा हूँ मैं

~ बेबार

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