लॉकडाउन के दिनों में
सड़कें वीरान हैं
पंछी हैरान हैं
और इंसां है क़ैद
न कहीं सैर सपाटा
न कदम बाहर रखना
न घर छोड़ने की चिंता
न कभी ताले लगाना
सो, सभी ताले मुँह फुलाये
दरवाज़ो के हत्थे के पीछे
झूल रहे हैं दिन-ओ-रात
पेट में चाबी फँसी है
जो अधूरा सा रखती है
अलग-अलग कमरों में
तन्हा-तन्हा गुमसुम हैं
बिना एक दूजे से बतियाये
अरसा हुआ ख़ाली घर पे हक़ जमाये
इन दिनों पेट ख़राब रहता है तालों का
अक्सर जो कह-सुन लेने से
हल्के हो जाते थे बोझ,
अब किससे कहें, कौन सुने
क़ैद करने की फ़ितरत हो जिसकी
उसको क़ैद बड़ी ख़लती है
हैरत है ये आदत तालों की
आदमी से कितनी मिलती है ।
~ प्रशान्त ‘बेबार’