दनदनाते जहाज़ों से कुछ ही
घर छोड़कर रहते हैं लोग
लोग जो नर्म पोशीदा सुबह में
लिपटे हुए सो रहे हैं,
बुन रहे हैं हसीन ख़्वाब
पटरी हो या ‘रनवे’
किनारे से लगे घरों को
चैन-ओ-सुकूँ में नींद नहीं आती
कोई हॉर्न या इंजिन की गड़गड़ाहट
ज़रूरी है नींद आने के लिए
अलग सुरों की लोरी है इनकी
सूरज ने साहिल पे खड़े होकर
अपनी एक सुर्ख़ मुलायम सी
रौशनी छिड़की है शहर पे ;
सड़क किनारे रेंगते हुए
बड़े डंडे लगी झाड़ू से
कत्थई वर्दी के नायक
झाड़ रहे हैं अधसोयी आँखों की नींद ;
औरतें अपने-अपने घर के आगे
लीप रही हैं रंगोली नयी
डूबकर रात भर की पुरानी बातों में ;
जनेऊ पहने लोगों के हाथों में
थाली है, लोटा है, पैर हैं नंगे
जा रहे हैं जगाने ख़ुदा को ;
मोड़ पे चुपचाप खड़े लोगों की भी
ज़िन्दगी ठहरी नहीं है
स्टील की छोटी गिलसिया से
चाय की चुस्की खींच रहे हैं जल्दी-जल्दी ;
भागता दिन पकड़ नहीं आता
सूरज का मुहाना कोई नज़र नहीं आता
कि कसकर बांध दें और आराम मिले
फूँक-फूँक कर सुड़क तो पाएँ इक प्याला ;
खुलते सिग्नल और बदलते गियर के बीच
बहुत तेज़ भागती है ज़िन्दगी
उसकी भी,
जो खड़ा हुआ है एक जगह पे
पिछले बीस बरस से
जमा के दुकान अपनी
पान-मसाले, दूध-दही की
उठा रहा है नीले पुते टीन का बोर्ड
तान रहा है त्रिपाल दुकान का
अभी बस आधा दर्जन है वज़न घड़ी का
और सूरज अलसायी आँखें मल रहा है ;
एक हाथ पे उल्टी सड़क भाग रही
और दूजे पे जीवन का चक्का;
मगर, इन सबके बीच में भी
बड़ी कच्ची नींद है इस शहर की
अक्सर जल्दी है उठ बैठता
_तिरसुलम_ से _मीनंबक्कम_ के बीच
रुक-रुक कर भागती इस ज़िन्दगी में
ठहरा हुआ हूँ मैं, थका हुआ,
अब बस एक थपकी देकर इस रात को
अपने सिरहाने सुलाना है ।