फ्लाईओवर के नीचे – आरुषि

बैसाखी है तो रहने दो,
टखने से ख़ून रिसता है
तो बहने दो ।

पिछली दफ़ा भी किसी ने रहम खाकर
बायीं टाँग की मरम्मत करवाई थी
दुरुस्त हुआ पैर तो धंधा मंदा पड़ गया
किसी आँख में हमदर्दी न मिलती
रोज़ कटोरा ख़ाली ही रहता
कल्लू भी गुस्से में गाली बकता
फिर एक रात,
फ़क़त एक बोतल की तलब लिए
बाप ने नशे की वहशियत में
ज़ंगी आरी से दायाँ पैर चाक किया।
अब भीख बराबर मिलती है
गाली भी ज़रा कम पड़ती है

सुनो, बैसाखी है तो रहने दो ।

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