इस दुनिया के अच्छे बुरे मसाइल में
सही ग़लत, कहीं दूर दब गया
उस माँ का चेहरा, जो थोड़ा अलग था
खुर्चट लकीरों के पीछे छुप गया
माँ होने के लिए क्या है ज़रूरी
क्या काफ़ी है बस औरत होना
या माँग सिन्दूरी होना ज़रूरी
नहीं तो माँ है ग़ैरत होना ?
हमारी गाथा कविताओं में
माँ सबसे बुलन्द ताज है
फिर क्यूँ दूजी जानिब देखो
वो सिन्दूर की मोहताज है
जो लड़की बच्चा रख सकती थी
वो बिखरे मन से बच्चा गिराती है
ज़हर के ताने जीने न देंगे
औलाद की ख़ातिर डर जाती है
और जो बच्चा नहीं करना चाहती
उसपे इतना ज़ोर डाला जाता है कि
वो अपना ज़हनी तवाज़ुन खो देती है
किलकारी की आड़ में, धीमे से रो देती है
दोनों ही औरतों ने खोयी ममता,
फ़क़त अच्छे बुरे के मसाइल में
एक वो भी तो माँ है जिसके
आधार कार्ड पे रेड लाइट इलाका दर्ज है,
मगर उसके बच्चे को न मिला दाखिला
अंधी गलियों में जीने देना, यही हमारा फ़र्ज़ है
औरत जनती हैं माँस का लोथड़ा और
सौंप देती है औलाद बाप की बाहों में
ताकि लिखा जाये शान से बाप का नाम
हर फ़ॉर्म, हर दस्तावेज़ी चौराहों में
मुल्क़-ओ-कौम के नाम पे दहकते शोले
और भीतरी रंजिश में शिकार होती औरतें,
जिनकी वफ़ा नोंच कर रेप किया जाता है
उनकी भी तो कोख में कोई नादान,
इस सबसे अंजान, एक नयी जान
बदन में दाख़िल होती है,
वो भी तो सहती हैं नौ महीने तक दर्द
छिली हुई रूह की टीस के साथ
वो भी तो बनती हैं माँ,
औलादें उनकी भी होती हैं
मगर हम इनमें से किसी को माँ जैसा नहीं समझते
चूंकि ये हमारे लिए रोज़मर्रा का त्याग नहीं करतीं
न ही ख़ुद भागते हुए रखती हैं टिफ़िन पति का
सही ग़लत से दूर, बस अच्छे बुरे के मसाइल हैं
इनका भी तो होता होगा कोई
कुतरा सा, उधड़ा सा, स्याह रंग का
‘मदर्स डे’,
सूखे दूध की छाती लिए, है बड़ा फ़ितूरी
सब ढोना
माँ होने के लिए जो है सबसे ज़रूरी,
वो है बस,
माँ होना ।
~ प्रशान्त ‘बेबार’