“वाह मिश्रा जी वाह ! क्या गाना बनाया है !”, सनी सोफ़े पर बैठा हुआ अचानक टीवी की तरफ़ झुककर ज़ोर से बोला । कमरे में बैठे बाक़ी सभी ने चौंक कर देखा ।
टीवी पर किसी कार्यक्रम में गाना बज रहा है, ‘उजला ही उजला शहर होगा, जिसमें हम तुम बनायेंगे घर, दोनों रहेंगे कबूतर से, जिसमें होगा न बाज़ों का डर।’
पीछे से सनी के पिता महेश रैना चश्मा ख़ोल से निकालते हुए बोले, “अर्रे, कुछ समाचार वैगैरह लगा दे, देखें तो सही देश में चल क्या रहा है”
पास ही टीक की कुर्सी पे बैठे दादू ने अपने चश्मे में से आँखें उचकाईं और बड़बड़ाए, “जिस मुल्क का दम घुट रहा हो, वो कैसा चलेगा भला, हुँह !”
सनी ने बेमन से रिमोट में नंबर ढूंढे और लगा दिए समाचार । रोज़मर्रा की ख़बरें आईं और फिर मौसम के हाल चाल । नीचे चेन्नई से शुरू होते-होते जब तक समाचार पढ़ने वाला कश्मीर के मौसम तक पहुँचता, दादू अपनी छड़ी उठा अंदर कमरे की तरफ़ चल दिए। मौसम पसन्द नहीं आया या देश के हालात, मालूम नहीं ।
दिगम्बर लाल रैना यानी दादू अपने बेटे महेश, बहू राधा और पोते सनी के साथ ही दिल्ली के शास्त्री नगर में रहते हैं । 90 के दशक के शुरुआती सालों में जब लाखों कश्मीरी पंडितों ने वादी छोड़ी थी, उसी वक़्त दादू भी अपने बेटे, बहू और तीन महीने के पोते के साथ दिल्ली में आ गिरे थे । सन ’92 से अब तलक कुछ सनी बड़ा हुआ, कुछ बड़े हुए खिड़की-दरवाज़े और घर के कमरे । फिर भी सनी की माँ राधा, अकायस ही कहती रहती, “कश्मीर में हमारे घर में सत्रह दरवाज़े थे, अब लगालो कमरे कितने होंगे ।” शाम रोज़ इसी तरह बीता करती, टीवी, गाने, मौसम और दादू ।
सुबह उठते ही सनी को काम पे जाने की जल्दी होती। अभी-अभी कॉलेज पूरा हुआ ही था कि सनी ने काम पकड़ लिया।
उसकी माँ राधा कमरे में घुसते ही सनी से बोली, “आज भी इतनी सुबह बुलाया है ? और ये शर्ट कैसी अजीब सी है, कुछ सोबर सा पहन, सफ़ेद शर्ट पहन ले, अच्छी लगेगी ।”
“सफ़ेद नहीं माँ, बहुत ‘बोरिंग’ लगता है, जनाज़े का रंग”, सनी ने आईने में बाल सँवारते हुए जवाब दिया और फ़ौरन ही अपनी बाइक को रॉकेट बना घर से निकला ।
“कहाँ हो यार मेघा, जल्दी आओ। मैं गली के कोने पे ही खड़ा हूँ”, सनी कान पे फ़ोन लगाए यहाँ वहाँ देखने लगा ।
“वाह ! पंजाबन, क्या लग रही हो ! ऑफिस में सब देखते रह जाएंगे।”, सनी मेघा के आते ही मुस्कुराकर बोला। मेघा और सनी दोनों कम ही वक़्त में एक दूसरे के क़रीब आ गए थे और एक दूजे के साथ वक़्त बिताने लगे थे। “यार, तुम न होती तो मेरा क्या होता !”, कहकर बाइक में किक मारी सनी ने। मेघा ने सनी को कसकर पकड़ा और देखते ही देखते दोनों धुआँ हो गए ।
महेश और सनी के दफ़्तर जाने के बाद राधा घर का काम निपटाकर जो भी वक़्त मिलता कश्मीरी फिरन (पैरहन) बुनती रहती । कश्मीरी कढ़ाई में बड़ी माहिर थी।
“अरे राधा, मेरा मफ़लर देना ज़रा, यहाँ तो सर्दी कम धुंध ज़्यादा है”, कहते कहते दादू हॉल में छड़ी टिकाकर दाख़िल हुए । राधा बुनाई सोफ़े पे पटककर फ़ौरन उठी और दादू का हाथ पकड़ कर कुर्सी पर बिठाने लगी।
“पंडितजी, आप यहाँ बैठो, मैं लाती हूँ अंदर से”, राधा ने तसल्ली देकर कहा।
चूँकि महेश बचपन से ही अपने पिता को पंडितजी कहता था सो राधा भी कह निकली। महेश की ये आदत उसे उसके गाँव और अपनी माँ से मिली। पहले सभी घाटी में उन्हें पंडितजी ही कहते थे, वो तो एक दौर ही ऐसा आया कि सब बस ‘पंडित’ कहने लगे। शायद इसीलिए महेश और राधा ने उन्हें कभी पंडितजी कहना नहीं छोड़ा।
दादू ने मफ़लर लपेटा और बड़े इतरा के बाहर टहलने निकल गए, अक्सर शाम पाँच बजे इसी तरह निकला करते । फिर यूँ ही कई शामें ख़र्च हो गईं। एक रोज़ बड़ी बेचैनी में लौटे और बोले, “ये घर के बाहर खड़िया से कैसा निशान बना है और जाने क्या क्या नंबर लिखे हैं, समझ नहीं आ रहा। राधा, देखना ज़रा। आओ जल्दी आओ। आने दो महेश को, पूछता हूँ घर की किश्त दी कि नहीं, कल को कोई आ धमका तो, हे भगवान, हे ईश्वर !” राधा थोड़ी सी चिड़चिड़ाकर बोली, “एक मिनट, एक मिनट।”
ग़ौर से दरवाज़े को देखा, फिर गहरी साँस लेकर बोली, “कुछ नहीं है पंडितजी, पोलियो की दवा पिलाने वालों ने लगाया है, कि कौन सा घर हो गया और कौन सा बाकी है, बस। दिल्ली में होता है ऐसा । आप घबराइए मत, आइए अंदर आइए।” दादू दुर्गा-सप्तसती गुनगुनाते हुए घर के अंदर चले गए ।
रोज़ की तरह सात बजे जब दरवाज़े पे छोटी छोटी दो घंटियाँ बजी तो महेश के आने की आहट हुई। राधा ने दरवाज़ा खोला, दादू बैठे टीवी देख रहे थे। चाबी रखते रखते महेश बोला, “कमाल की मॅहगाई है भई दिल्ली शहर में, आज भट्ट साब की दुकान गया था, वो ‘कश्मीर प्रोडक्ट्स’ वाली। हैरान रह गया यहाँ के रेट सुनकर, केसर दस ग्राम हज़ार, अख़रोट बारह सौ, काजू हज़ार, हद है। कहाँ मुट्ठियाँ भर-भर के यूँ ही उड़ाया करते थे। हैं न पंडितजी ?” दादू ने टीवी की आवाज़ बन्द की और गर्दन घुमाकर बोले, “कश्मीर की हर चीज़ महँगी है, सिवाए इंसानी जान के।” महेश और राधा ने एक दूसरे को देखा और कुछ न बोले। टीवी की आवाज़ फिर से तेज़ हो गयी।
खाने के बाद राधा ने महेश को अकेले में ले जाकर बात बताई कि आज कैसे दादू इतने परेशान हो गए थे। महेश ने पूरी बात सुनी और राधा को समझाया कि ज़्यादा चिंता न करे, जिस इंसान ने रईसी के दिन जिये हों और अचानक सब उजड़ जाए तो हमेशा एक खौफ़ सा बना रहता है। एक गुम सा लम्हा बीता और महेश मुस्कुरा कर बोला, “क्यों, तुम्हें याद नहीं है क्या, कैसे हम दोनों महाराजगंज बाज़ार में घंटों बिता दिया करते थे, ऐश से ख़रीददारी करते करते”
राधा भी मुस्कुराकर बोली, “हाँ सब याद है, और कैसे मेरे लिए पश्मीना लाये थे आप पंडितजी से छुपाके, सब याद है। शादी के अगले ही दिन ऐसी चोरा-चोरी कौन करता है भला।” दोनों ठहाका मार के हँस दिए । महेश कुर्सी से उठने लगा तो अचानक पूछता है, “ये सनी कहाँ है, दिखाई नहीं दे रहा ?”
राधा ने तसल्ली दी ,”बाहर गया है अपने दोस्तों के साथ, देर होगी आने में”
महेश ने थोड़ा रुककर एक लंबा सा ‘अच्छा’ कहा और चला गया । कुछ घंटों बाद सनी कान पे फ़ोन लगाए दाख़िल हुआ ।
“अच्छा सुनो न, अभी रात में बात कर पाओगी न प्लीज़ ? मैं अपने कमरे में पहुँच के कॉल करता हूँ”, सनी फुसफुसाया । इश्क़ में वक़्त सूखी रेत होता है, फ़ौरन फिसलता है। घर की लाइटें बन्द हो चुकी थीं मग़र सनी के कमरे में जैसे हज़ार चराग़ रोशन थे। आज फ़ोन पर मेघा से शादी की बात जो करनी थी।
“हाय”
“हेल्लो जी”
“यार मेघा, ऐसा लग रहा है अब भी झूले पर ही बैठा हूँ, तुम्हारा हाथ पकड़े”,सनी तकिया गोद में दबाये बोला। मेघा खिलखिला पड़ी, “आज बहुत मज़ा आया ना !”
सनी गंभीरता से बोला, “हाँ, हमेशा की तरह। तुम्हारे साथ हमेशा ही अच्छा लगता है, एक अलग सा सुकूँ मिलता है, अलग सा…अम्म कैसे बताऊँ कैसा।” मेघा ने हिम्मत दिखाकर पूछा, “घर जैसा ?”
सनी तकिया छटककर बोला, “हाँ, सही कहा, घर जैसा सुकून, जैसे हम घर में होते हैं बेपरवाह बेख़ौफ़, सब अपना सा, कुछ भी कह सको, कुछ भी सुन सको। और तो और तुम जब भी साथ बाहर जाती हो, मेरे लिए पानी की बोतल संग लेकर चलती हो। चलता फिरता घर ही तो हो तुम मेरा, हाँ ! सच मेघा, यू आर माई होम डार्लिंग”
“तुम भी तो मेरा कितना ध्यान रखते हो सनी”
“मेघा, चलो ना जल्दी से शादी करते हैं, फिर साथ रहेंगे, और मज़े करेंगे ज़िन्दगी भर, अपने घर को घर लाना चाहता हूँ मैं”, सनी ने झिझकते हुए बात पूरी की। मेघा एक पल को ठहरकर बोली, “पहले घर में बात तो करो, और उससे पहले जो जॉब बदलने की बात करनी है, वो भी करो, हम ज़रूर साथ रहेंगे जान। तुम ज़रा भी फ़िक्र मत करो।”
“हम्म, कल छुट्टी है सोच रहा हूँ बात शुरू करूँ मौका देख कर, ख़ैर कल देखता हूँ सुबह, तुम बिल्कुल चिंता न करो।”, सनी ने भरोसा जताया। मेघा ने शरारत करके सनी का मूड ठीक किया और रोज़ की तरह दोनों दो बजे फ़ोन रखकर सो गए।
सुबह से ही घर पे हलचल मची थी। सनी नाश्ते के लिए आया और बोला, “क्या हो रहा है, कोई आ रहा है क्या ?” अंदर से राधा की आवाज़ आयी, “हाँ, जम्मू वाले तेरे पृथ्वी चाचा”
“ओह्ह, अच्छा ।” नाश्ता ख़त्म करते करते सनी किसी सोच विचार में पड़ गया था। राधा और महेश भी नाश्ता शुरू कर चुके थे। दादू अपने पीतल के छोटे गिलास में कहवा पीने में मशगूल थे।
“मम्मी मैं कुछ सोच रहा था”, सनी ने हल्के स्वर में बात रखी।
“क्या हुआ ?”
“एक नई जगह काम शुरू करने का सोचा है, अच्छी कंपनी है, अच्छा पैकेज है, और फिर वीज़ा के लिए भी मान गए हैं तो अच्छा रहेगा”, सनी ने बात पूरी की ।
“वीज़ा ?”, दादू चश्मे में से झांककर बोले।
“हाँ, यू.एस कम्पनी है, तो वहाँ का भी काम देखना होगा और यहाँ का भी…कभी…कभार।” राधा ने निवाला नीचे रखते हुए पूछा, “बेटा यहाँ दिल्ली वाली कंपनी में कोई दिक्कत है क्या ?”
“नहीं मम्मी, बस आगे का भी तो देखना है”
दादू सख़्ती से बोल पड़े, “और जो पीछे रह जायेगा, उसका क्या ?”
“क्या पीछे दादू ? इंसान आगे नहीं बढ़ेगा क्या ? हमेशा घर से ही बंधके रहे बस”, सनी भी गरम हुआ। महेश ने बीच में ही बात काटी, “वो सब बात ठीक है, लेकिन तुम्हारी शादी का भी तो देखना है, कम से कम इंडिया में ही ऑप्शन देख लो। घर के पास भी रहोगे।”
सनी तमतमा गया।
“पापा, होम इज़ ए फ़ीलिंग । जहाँ मान लो, वहीं घर है।”
अब दादू का पारा चढ़ गया।
“अजी हाँ ! ज़रूर ! दुनिया पागल है जो अपनी ज़मीं, अपनी मिट्टी से जुड़ी रहती है। घर क्या होता है ये उनसे पूछ जिसका कभी छूटा हो। तू तो अपनी माँ के पेट में था जब हम तीनों अपना एकड़ों में फैला घर और बगीचा छोड़कर जम्मू में आ छुपे थे। वो तो शुक्र है पृथ्वी लबरु का जो हमें पनाह दी और फिर महेश ने दिल्ली में पैर जमाये। तू क्या जाने क्या गँवाया है हम सबने ।” कहते कहते दादू की आँखों से आँसू फूट पड़े।
सनी ने भी नाख़ुश होकर जवाब दिया, “ये अच्छा है, जो बीत चुका बस उसी पर रोते रहें, आगे बढ़ने का सोचें ही न। सब अपना घर छोड़ते हैं, लड़की शादी के लिए, लड़का नौकरी के लिए, इतनी बड़ी बात क्या है ? व्हाट्स द बिग डील ?”
दादू तपाक से बोले, “बिग डील है- हालात । फ़र्क इस बात से पड़ता है कि घर किन हालातों में छोड़ा है।”
सनी लाल चेहरा लिए कुर्सी से उठा और अपना फ़ोन और मोटरसाइकिल की चाबी लेकर बड़बड़ाता हुआ निकला, “इस घर में किसी से बात करना ही बेकार है।” दरवाज़े की ज़ोर की धड़ाक ने हॉल में चुप्पी बिखेर दी। दादू के होंठ कंपकपाने लगे तो महेश ने फ़ौरन संभाला, राधा ने पानी दिया।
महेश ने कंधे पे हाथ रखके समझाया, “पंडितजी, आप अपना दिल न दुखायें, सनी तो बच्चा है, नासमझ है। उसे कुछ पता ही नहीं है कि घर की एहमियत क्या है। आप ही के कहने पर हमने उसे कोई भी बात ज़्यादा गहराई से नहीं बताई कि कहीं गुस्से में आकर कोई ग़लत रास्ता न चुन लें।” दादू और राधा ख़ामोश थे। थोड़ी ही देर में दादू ने चुप्पी तोड़ी।
“अपने बाप दादा के समय से उसी आँगन में पला था हम सबका बचपन। महेश का भी, बिट्टी का भी। जितना वहाँ जीने की ख़्वाईश थी उससे कहीं ज़्यादा वहाँ दम निकलने की।”
तीनों की आँखों में आँसू छलक उठे और यादें बहने लगीं। कब उन्नतीस साल पहले फिसल गिरे मालूम ही नहीं हुआ ।
——
मई 1991, कश्मीर
आँगन में महेश पंडितजी के साथ बाड़ा-बंदी कर रहा था और बहन बिट्टी औऱ नई बहू राधा माँ के साथ काम में हाथ बँटा रही थीं। तभी बाहर से दौड़ते हुए पड़ोसी शम्भू नाथ आया। हाँफते हुए एक ही साँस में उफ़न पड़ा, “अरे पंडितजी गज़ब हो गया। कोहराम मचा है कोहराम । लाल चौक चौराहे पे सुबह…वो नवीन भट को…वो……”
“क्या हुआ लाल चौक पर शम्भू ?”, पंडितजी ने करीब आ गर्दन एक तरफ झुकाकर शम्भू के कंधे पे हाथ रखकर पूछा। महेश और बिट्टी ध्यान से सुन रहे थे, नवीन भट उनका कॉलेज सीनियर था और पड़ोसी भी। शम्भू ने बदहवासी में बताया कि चार उग्रवादियों ने सुबह लाल चौक पर नवीन को गोलियाँ मारी और हाथ पैर शरीर से अलग कर दिए। उसकी लाश उठायी नहीं, बीनी गयी थी। उसके घरवाले तो ऐसे पागल हुए कि फ़ौरन ही चिता जलाने का इंतज़ाम किया गया। तभी बीच में किसी ने उसकी कटी उंगलियाँ लाकर दी, अँगूठी पहचानकर । वो भी जलती चिता में बीच में ही डाली गईं जैसे हवन में कोई लकड़ी डालता है बीच बीच में। किसी ने भीड़ में से पूछा, “नवीन का कोई झगड़ा हुआ था क्या आतंकियों से ?”
एक दुकान वाला बोला, “नहीं, बस उसने कहा था कि वादी मेरी जन्मभूमि है, मैं अपना घर क्यों छोड़ूँ भला!”
वाक्या सुनकर घर की तीनों औरतें सिहर गईं। सभी वादी छोड़कर जम्मू जाने की ज़िद करने लगे, सिवाय पंडितजी के। जाने से पहले रुपयों पैसों के इन्तेज़ामात के लिए पंडितजी ने बगीचे बेचने की ठानी सो महेश को साथ लेकर पास ही के सोपोर कस्बे में चल दिये, किसी व्यापारी विशाल धर से मिलने। घर पर नई बहू राधा, बिट्टी और उसकी माँ को महफूज़ कर गए, एक पहलवान नौकर की रखवाली में। नौकर बाड़े में सेब तोड़ रहा था, बिट्टी बोरी में भर रही थी। तभी तीन लोग मुँह पर काला कपड़ा बाँधके अंदर घुसने लगे। हाथ में ए.के-47 थी और बिट्टी की जानिब इशारा किया। नौकर रोकने के लिए लट्ठ लेकर आगे आया तो तीनों ने तीन तीन गोलियाँ मारी। पूरी गली गूँज उठी, पड़ोस की कोई खिड़की, कोई दरवाज़ा न खुला। बिट्टी एक कोने में खड़ी काँपती रही, माँ ने राधा को ऊपर अटरिया में छुपाया और ख़ुद रसोई से बड़ा चाकू लिए आँगन में दौड़ पड़ी। तीनों ने अपनी बंदूकें कंधे पे डाली और नौकर की लाश को खींचकर बीच में लाये। उसके माथे के बीचों-बीच एक एक गोली और मारी और फिर तीनों ने मिलकर उसपे पेशाब किया।
बिट्टी और उसकी माँ सुन्न पड़ गए। तीनों में से एक दाढ़ी वाला आदमी कपड़ा हटाकर उनकी तरफ बढ़ने लगा, बाकी खड़े दोनों जिहादी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, उनकी आँखों में वहशियत की झेलम तांडव कर रही थी। एक बिजली सी कौंधी और अचानक माँ ने चाकू से बिट्टी का गला रेंत दिया, ख़ून का फब्बारा फूटा और आँगन में सन्नाटा पसर गया। तीनों वापस लौट गए। उनकी जीप के पीछे पीछे बिट्टी की माँ बहुत दूर तक भागी और फिर कभी वापस नहीं आयी।
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जैसे ही पुरानी यादों की शिकस्त ढीली हुई तो वर्तमान ने जकड़ लिया। दादू और राधा को तो जैसे दौरा पड़ा हो। महेश ने समझाया कि वो सनी से बात करेगा कि अपनी मिट्टी से दूर न जाये। उस रात सनी घर नहीं आया, बस फोन कर दिया कि दोस्त के घर रुकेगा, कुछ काम है।
सनी टहलते हुए माथे पर हाथ फेरते हुए राधा से बात करता है, “नहीं नहीं यार, घर नहीं गया। प्रोजेक्ट का काम है, सिन्हा के घर पे ही हूँ। प्लीज़ खाना खाके ज़रूर बात करना, बहुत मन है।”
“सनी तुम ठीक से रहना, किसी भी बात की चिंता मत करना। अच्छा, तुम अपने घर पर हमारे बारे में बात करो न। यहाँ मैं भी मौका देखके मम्मी से बात करूँगी।”, मेघा ने समझाया।
सनी ने गहरी साँस भरते हुए कहा, “हम्म, करता हूँ कल घर जाके।” एक लम्हा ठहरा और अलसायी सी आवाज़ में बोला, “पता है मेघा, जब तुमसे बात कर लेता हूँ तो बड़ा चैन पड़ता है, सुबह से अजीब सा लग रहा था, अब सुकून है। थैंक यू मेघा ।”
“ओह्ह हो बाबा, कैसा थैंक यू। तुमने ही तो कहा था कि मैं तुम्हारी दुनिया हूँ जहाँ आकर तुम ठहर जाते हो, घर जैसा सुकून मिलता है।”, मेघा ने भी अलसायी सी आवाज़ में और ज़्यादा प्यार से जवाब दिया।
अगले दिन जब सनी घर आया तो बात करने के बहाने तलाशने लगा। राधा समझ गयी, पूछ लिया कि माज़रा क्या है।
थोड़ा झेंपते हुए सनी ने दिल की बात बता दी। राधा ख़ुश हुई और महेश को मनाने की ज़िम्मेदारी भी ली। दादू को पता चला तो उन्हें भी जाने क्यूँ अजीब सी खुशी हुई। चेहरे पे राहत के निशान खिंच गए। महेश को बस एक ही बात खटकी कि लड़की भी तो अपने घर पर बात करे। सब सुलझने लगा।
पूरा हफ़्ता मसरूफ़ियत में गुज़रा । काम के चलते मेघा के फ़ोन का जवाब देना भी दुश्वार हो रहा था। सनी मेघा को खुश करने के लिए हफ़्ते भर बाद मिलने चला गया। सनी को बड़ी हैरानी हुई कि मेघा आने के लिए सहज ही तैयार नहीं हुई।
“क्या हुआ यार ! क्या बात है? फ़ोन भी नहीं उठाया। सब ठीक तो है ?”, सनी ने मेघा का हाथ पकड़ कर पूछा।
अचानक मेघा ने हाथ छुड़ाया और मुहँ फेरकर बोली, “सनी, मैं तुमसे अब नहीं मिल सकती बस। हम शादी नहीं कर सकते।”
सनी को कुछ समझ नहीं आया, वो हड़बड़ाने लगा, “लेकिन…ऐसे कैसे मेघा…सुनो मेरी बात सुनो….तुम …तुम मेरी दुनिया हो, मेरा घर हो…तुम सब छीन रही हो ..मेरा प्यार.. सब कुछ ।” सनी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई, वो रोया, बिलखा और बात में बात बढ़ती चली गयी, झगड़ा बड़ा हो गया । दोनों पीठ फेरकर लौटने लगे, मेघा सपाट चेहरा लिए और सनी माथे पे लकीरें।
सनी रात को बेसुध होकर घर लौटा और बिस्तर में समा गया। गहरी नींद में सो गया शायद।
“नहीं…नहीं ऐसा मत करो, मैं मर जाऊँगा। सुनो मेरी बात तो सुनो।” एक आदमी गिड़गिड़ाता है। हाथ जोड़कर कांपता है और ज़बाँ से बिलखता है, “मेरी दुनिया, मेरा सुकूँ, सब ख़त्म, सब बर्बाद हो गया”। आँखों के आगे अँधेरा बढ़ता जाता है और किसी साये के कदम दूर जाते मालूम होते हैं।
अचानक नींद टूटी। “उफ्फ !सपना था।”
दादू घबराकर उठ बैठे। दादू का सफ़ेद कुर्ता पूरा पसीने से गीला था। बिस्तर पर बैठे बैठे ही सिसकने लगे। तभी बाहर हॉल के अंधेरे में बैठा सनी दादू के कमरे में दाख़िल हुआ, दादू के बिल्कुल क़रीब जाकर बैठा। दादू के हाथ पर हाथ रखा और उनका सर अपने कंधे पे रख लिया, जैसे कभी दूर नहीं होगा, मगर ज़बाँ से कुछ न बोला। देर रात तलक दादू के आँसू सनी की सफ़ेद शर्ट भिगोते रहे।
अगली सुबह नाश्ते पर सनी ने सबको बताया कि सभी अपने ज़हन से मेघा और उसके देश से बाहर जाने की बात, दोनों को निकाल दें। बाकी तीनों थोड़ा चौकें मग़र कोई कुछ न बोला। सनी पहले बेचैन रहा, फिर बेपरवाह और फिर धीरे धीरे रोज़मर्रा हो गया।
मई गुज़रा जून आने वाला था, दादू चौरासी साल के होने को थे और देश में भी नई सरकार ने जन्म लिया था। कुछ हालात बदले, कुछ हुक्मरां, अब श्रीनगर और कश्मीर घूमने-फिरने जाने वालों के लिए तो खुला ही था। सनी ने दादू को एक दफ़ा कश्मीर लेके जाने का फैसला किया। महेश और राधा ने भी कोई ऐतराज़ नहीं जताया। वैसे भी दादू आजकल ज़्यादा ही बेचैन रहने लगे थे, पहले की तरह शाम को सैर पे जाना भी बंद कर दिया था। दादू को सनी की कश्मीर जाने वाली बात का पता चला तो वह समझ नहीं पाए कि ख़ुश हों या दुखी। बहरहाल, हफ़्ते भर बाद दोनों दिल्ली से फ्लाइट में बैठकर सीधा श्रीनगर आ गए। दादू जब टैक्सी में बैठे तो बोले, “अख़बार में पढ़ा था कि कश्मीर में अब पर्यटक सैलानी बढ़ गए हैं, मगर सबने फौजी वर्दी क्यूँ पहनी है यहाँ ?”
टैक्सी ड्राइवर ने बस पीछे मुड़कर देखा। घड़ी की लगभग आधी गिनतियाँ और पूरे चेकपोस्ट पार करके दादू अपने गाँव पहुँचे । सनी ने पहले ही महेश से सारी जानकारी इकट्ठा कर ली थी। थोड़ी सी तफ़्तीश के बाद आख़िरकार दादू ने अपना घर पहचान लिया, पड़ोस के कई घर आग लगने से काले पड़ गए थे। दादू ने घर क्या देखा, पलक तक न झपकी। वही नीला लोहे का फाँटक, अब बस किनारे की तीन पत्तियाँ उखड़ गई थीं। फाँटक से कमरे के बीच में फैली कच्ची ज़मीन, मिट्टी, घास और वही सेब के पेड़। अब घर किसी अबु बक़र का मकान था। सनी ने मकान-मालिक को बताया कि वो पहले यहाँ रहा करते थे तो बस घर देखना चाहते हैं, ज़रा सी यादें ताज़ा करनी हैं। मकान-मालिक ने हिचकिचाते हुए हामी भरी। कमरे की दीवारों को छूते हुए दादू की आँखें छलक गईं, अब पुताई बदल गयी थी। मकान-मालिक की हिचकिचाहट बढ़ने लगी, सनी ने भांप लिया। पास ही रखी आराम कुर्सी को बाहर कच्चे में डालने की गुज़ारिश की और कुछ तस्वीरें खींचने की ख़्वाईश ज़ाहिर की। दादू बाहर घास मिट्टी के बगीचे में कुर्सी पर बैठ गए। सनी ने आँगन में देवदर लकड़ी से की गई बाड़ा-बंदी की तस्वीरें खींचीं, कैमरा लेकर बाहर आया और एकाएक रुक गया, पीछे से दादू को देखकर । दादू ने चमड़े की चप्पल उतारकर पैर घास में रखे हुए थे और सीधे हाथ की मुट्ठी में मिट्टी दबा रखी थी। सनी मुस्कुराकर आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठे दादू के कंधे पर हाथ रखा। देखा तो दादू की आँखें खुली रहीं और गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी। मिट्टी के हाथों में से मिट्टी सरक रही थी।
सालों गुज़र गए, सनी के पैरों से भी मिट्टी कभी नहीं छूटी।
— प्रशान्त ‘बेबार’
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ⓒ Prashant Bebaar 2019