वक़्त का थान

ये कैसा थान है वक़्त का
लम्हा लम्हा खोलूँ तो
उधड़े उधड़े से रेशे निकल रहे हैं
हर-पल “पल” फिसल रहे हैं

इस थान से जो काटे थे लिबास
अब बीत चुके हैं
माज़ी की पोशाकें फबती नहीं
यादों की कमीज़ जँचती नहीं

इस वक़्त के थान में ढूँढो कोई
बिना किरच का हिस्सा,
और एक बड़ा सा दिन काट दो

इस दफ़ा शॉल बनाना
जानां, तुम्हें दिन भर ओढुंगा भी
और बिछाऊँगा भी ।

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