ग़लत नज़्म – आरुषि

कुछ अलग करने की चाह में
तुमने इक बेमिसाल नज़्म रची थी
न लय-बहर
न रदीफ़-क़ाफ़िया
लफ़्ज़ों का अभाव
इब्तिदा से अंजाम तक
पूरी बेतरतीब
यहाँ तक कि,
उन्वान भी नहीं
ख़याल था बस एक

उस नज़्म को कितने दफ़्तर
कितने प्रकाशक के धक्के खाने पड़े थे
सुनकर ‘कि ये ग़लत नज़्म है’

आज एडमिशन की जद्दोजहद में
छड़ी चश्मा संभाले हुए महसूस हुआ
मैं ख़ुदा की लिखी, वही ‘ग़लत नज़्म’ हूँ।

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