“समर्थ…समर्थ …..ऐ समर्थ.. एक तो यह लड़का सुनता नहीं है बिल्कुल भी”, सुधा अपने बारह बरस के बच्चे को हर कमरे में खोजती हुई घूम रही है ।
बाहर के चबूतरे से कई आवाज़ें एक साथ आती हैं ।
“आ से गाना है.. गा”
“पर गाना तो ब से ख़त्म होता है”
“नहीं नहीं… लास्ट में आ..आ करके ख़त्म होता है, तू आ से ही गा, चीटिंग मत कर”
“अच्छा..ठीक है …ठीक है..”
सारी आवाज़ों का मिला जुला शोर ख़ामोशी में घुल जाता है । फ़िर एक वकफ़ा ठहरा और समर्थ की आवाज़ गूँज गई चबूतरे से लेकर पीछे वाली गली तक ।
“आवाज़ दो हमको..हम खो गए, कब नींद से जागे कब सो गए…
मर जायेंगे हम अगर दूर तुमसे हो गए..आवाज़ दो हमको…हम”
तभी उसके सुर को सुधा की तेज़ आवाज़ ने काटा।
“समर्थ !! कितनी देर से चिल्ला रही हूँ, सुनता नहीं है क्या”
समर्थ एकाएक झुंझलाकर, “हाँ, क्या हुआ मम्मी ?”
“मैं कितनी देर से चिल्ला रही हूँ अंदर से, सुनाई नहीं दिया क्या?”, सुधा भी झीकते हुए बोली ।
“यार, अंताक्षरी खेल रहा था, नहीं आई होगी आवाज़। बताओ क्या हुआ, क्या काम है”, कहते कहते उठ के साथ चलने लगा । साथ बैठे मोंटी, अजय और भूपेंद्र चुपचाप देखते रहे ।
सुधा ने हल्के नरम मिज़ाज में कहा, “जा बेटा, पापा को अख़बार दे आ, कब से राह देख रहे होंगे। मैं बस नाश्ता लगा कर अभी लायी ।” बात करते करते सुधा घुटने टेक कर समर्थ की ठोड़ी पकड़ कर बोली, “बच्चा मेरा, पोहा खायेगा या कुछ और मन है ?”
समर्थ आँखें गोल घुमाकर बोला, “नोयीं, सैंडविच खाऊँगा ।” सुधा ने मुस्कुराकर समर्थ के सर पे हाथ फेरा और रसोई की जानिब बढ़ गयी ।
समर्थ ‘हम्ममह हम्ममह’ गुनगुनाता हुआ बैठक में दाख़िल हुआ और व्हील चेयर पर बैठे अपने पापा की चेयर को हैंडल से साधकर मेज़ के क़रीब लाकर रख दिया ।
फिर सिर हिला हिला कर अख़बार रखा और कहने लगा, “पापा, ये लो अख़बार और मम्मी अभी नाश्ता लेकर आ रही हैं ।” समर्थ इतना कहकर चला गया बैठक से बाहर ।
पापा ने जवाब में सिर्फ़ आँखों की पुतलियाँ हिलायीं । पिछले बारह साल से सिर्फ़ पुतलियाँ हिलती हैं, पूरे बदन को लकवा है सो बस व्हील चेयर पर ही हवा पानी और दुनिया नसीब है ।
तूफ़ान की तेज़ी से दोनों हाथों में प्लेट लिए सुधा दाख़िल हुई । “टेंटेडें… गुड मॉर्निंग स्क्वाड्रन लीडर शौर्य चौहान । हाऊ यू डूइंग सर् ?”
सादा कुर्ते पजामे में व्हील चेयर पर बैठा शौर्य गहरी आँखों से सुधा को देखता है । सुधा भारतीय वायुसेना की वर्दी पहने ऊपर से नीचे तैयार है। और वर्दी पर नाम का बिल्ला है स्क्वाड्रन लीडर शौर्य चौहान का। सुधा ने अपनी कुर्सी आगे खिसकाई और नाश्ते की प्लेट से ब्रेड उठाकर चाकू से बटर लगाना शुरू किया। अचानक हाथ रुका, आगे झुककर शौर्य की दवाई की बोतल जो सुई की मदद से नब्ज़ों में जाती, उसके बूँद बूँद गिरने की तेज़ी को थोड़ा धीमा करके बोली, “हाँ, अब ठीक है”
फिर अपनी प्लेट से ब्रेड खाई । सुधा यही करती है, रोज़ सुबह शौर्य की वर्दी पहनकर चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान लेकर शौर्य की सुबह का आगाज़ करती है । उसे लगता है कि जब तक एक फ़ौजी अपनी वर्दी सही सलामत देखता है तो उसकी उम्र बढ़ती है। सुधा की इस बात को काटने के लिए, डॉक्टर औऱ साइंसदानों के पास भी कोई दुरुस्त जवाब नहीं है।
नाश्ता पानी और रसोई निपटा कर सुधा कमरे में अंदर दाख़िल हुई और शौर्य की वर्दी को हेंगर में लगा कर अलमारी में टांगने के लिए अलमारी खोलकर एक और वर्दी को आगे खिसकाती है, उस वर्दी के बिल्ले पे दर्ज़ है, ‘स्क्वाड्रन लीडर सुधा’ । उस बिल्ले पे दर्ज़ अपने नाम को पोटुयों से सहलाते हुए अतीत में डूब जाती है ।
बारह साल पहले :
“अच्छा माँ, आशीर्वाद दो हम दोनों को, पहली तैनाती है दोनों की, जोरहाट आसाम। ” कहकर शौर्य और सुधा ने एक साथ शौर्य की माँ के पैर छुए ।
माँ ने बड़ी फिक्र करते हुए कहा, “अभी तो ढंग ते घूम भी न पाए दोनों, ऐसी निगोड़ी सरकार है, हफ़्ता भर न हुओ हमाये छोरा ऐ ब्याह करे”।
एक तो इकलौता बेटा वो भी सरहद पर, ऊपर से बहू भी सेना वाली ही ले आया । क्या करे, बच्चों की खुशी में अपनी ख़ुशी। यही सोच सोचकर अपना मन बहलाती रहती । शौर्य की माँ ने शौर्य के बाबूजी के गुज़र जाने के बाद बड़े नाज़ों से उसको पाला । ये अपने बाबूजी का मेडल देखकर ही बड़ा हुआ सो हो गया सेना में भर्ती । दोनों में ज़रा सा भी फ़र्क नहीं लगता था। वो फ़ौज में टैंक चलाते थे, ये जहाज़ उड़ाता है, बस यही अंतर है।
शौर्य और सुधा ने अपने बस्ते उठाये और ट्रेन का घंटों सफ़र कर जोरहट आसाम पहुंच गए, बिल्कुल किसी हनीमून की मानिंद। शौर्य को फ़्लाइंग क्लब की ड्यूटी मिली और सुधा को ए. टी. सी टावर में कंट्रोलर की । पहाड़ी वादियों में जिंदगी बड़ी हसीन है ।
“धड़ाक !!!”
ज़ोर से आवाज़ आई और सुधा वर्तमान में आ गिरी।
ये माज़ी, ये यादें भी इंसान को बैठे बिठाए कहाँ कहाँ ले जाती हैं । कुछ यादें ज़ेहन में आये तो बदन को पलभर का लकवा सा लग जाता है।
झटपट अपनी वर्दी आगे खिसकाकर शौर्य की वर्दी अलमारी में टांग दी ।
“आई, रुको कौन है दरवाज़े पे ??” कहकर कमरे से बाहर निकल गयी और घर का दरवाज़ा खोला।
“मैम, मैं शाम को क्लास नहीं आऊंगी, बाहर जाना है काम से”, एक सोलह-सत्रह साल की लड़की होगी शायद ।
“हम्म, ठीक है, नोट्स लेना मत भूलना लेकिन”, कहकर सुधा ने दरवाज़ा बन्द कर दिया ।
शौर्य के हादसे के बाद उसकी माँ को दिल का दौरा पड़ गया, वो वक़्त के उफ़ान मारते दरिया में सुधा को अकेला छोड़कर चली गयी। सुधा ने सेना के अस्पताल से लेकर बड़े से बड़े प्राइवेट अस्पतालों के जाने कितने चक्कर लगाए लेकिन कोई भी शौर्य के लकवे को ठीक न कर पाया। आख़िर में सुधा ने अपनी मर्ज़ी से वायुसेना से रिटायरमेंट लेकर फरीदाबाद वाले घर में ही रहकर शौर्य औऱ समर्थ को ज़िन्दगी के लिए ज़िंदा रखने का फैसला किया ।
गोदी में बच्चा और व्हील चेयर पे पति लिए उसने डॉक्टर, हक़ीम, और ख़ुदा के सारे दरवाज़े खटखटाये। मग़र पति को पैरों पे खड़ा न कर सकी। मुहल्ले वाले सुधा की दिलेरी और मज़बूत जिगर की तारीफ़ करते न थकते और सुधा हाथ पाँव मारे बगैर न रुकती।
ज़माने की औरतों ने तो ये तक कहा कि जैसा भी है पति नज़र के सामने तो है, ग़र न हो तो सूखी नदी सी हो जाती है औरत । सुधा ख़ुद सेना में रह चुकी थी तो घुटने तो वो आख़िरी सांस तक न टेकती । कभी मालिश करती, तो कभी शौर्य की वर्दी पहने दिन भर घर में ही परेड करती रहती। कभी एक आँसू न गिराती थी शौर्य और समर्थ के सामने। हाँ पर यूँ भी कई दफ़ा हुआ कि सुबह के होन में रात को भीगे तकिये से विदा किया उसने । दूर के रिश्तेदार एक दूसरे के घर बातें बनाते कि “बताओ बेचारी की शादी को एक ही साल हुआ था और ऐसा हादसा हो गया। अब जैसा भी है पति ज़िंदा है दूसरी शादी भी भला कैसे करे, अब तो बारह बरस गुज़र गए, छोरा भी बड़ा हो गया।”
शुक्र था कि दूर के रिश्तेदार दूर ही रहते थे ।
आसमाँ के मालिक की इतनी रहमत ज़रूर रही कि दोनों की पेंशन से आब-ओ-दाना का इंतज़ाम हो जाता । फिर जब समर्थ स्कूल जाने लगा तो सुधा ने घर में ही ट्यूशन सेंटर खोल लिया। फिज़िक्स और मैथ्स की अच्छी जानकारी होने से फ़ीस भी अच्छी आ जाती।
शौर्य, समर्थ और ट्यूशन सेंटर, इसी त्रिकोण में सुधा की ज़िंदगी गोल है । सुधा समर्थ को प्यार तो बहुत करती थी मग़र सख़्त भी बहुत थी । यही सख़्ती समर्थ को चिड़चिड़ा भी बनाती थी, चली बात पर समर्थ अपनी चिढ़ निकाले बिना न चूकता । सुधा मजबूर थी। क्या करती, वर्दी में आँचल नहीं होता । बाप बनकर डाँट फटकार भी लगाती और माँ होने का फ़र्ज़ भी निभाती। एक बदन में दो रूहें अक्सर घुटन पैदा करती हैं।
एक रोज़ समर्थ सुधा के पास आता है और पैराग्लाइडिंग के लिए हिमांचल जाने की ज़िद करता है। सुधा डाँट कर मना कर देती है। समर्थ भिनभिना जाता है, “क्या है मम्मी, क्लास से बहुत सारे बच्चे जा रहे हैं, अब मैं आठवीं में हूँ कोई बच्चा नहीं रहा”
सुधा उसे समझाने की कोशिश करने लगी, “हाँ पता है बहुत बड़ा हो गया है, लेकिन पैराग्लाइडिंग के लिए नहीं जाएगा बस। जा यहाँ से ।”
समर्थ गुस्से में दरवाज़ा का पल्ला ज़ोर से मार कर जाता है। सुधा किवाड़ बन्द होते ही अतीत में जा फिसलती है ।
ग्यारह साल पहले:
जोरहाट, आसाम में वायुसेना बेस का ये दिन रोज़ की तरह आगे बढ़ा।
सुधा ए.टी.सी टावर में कंट्रोलर की ड्यूटी पर थी, और शौर्य वायुसेना का जहाज़ लेकर उड़ने के लिए तैयार । अक्सर वायुसेना के पायलट सुबह जहाज़ से अरुणाचल प्रदेश में रोज़मर्रा का सामान पहुँचाते हैं, ताकि आम इंसान को ज़रूरत की चीज़ नसीब हो सके । सुधा टावर से शौर्य को ‘बाय’ करके उड़ने की मंज़ूरी देती है। शौर्य तेरह और अफ़सर लेकर मेचूका, अरुणाचल के लिए उड़ जाता है। सुधा शौर्य के जहाज़ को रडार पे निगरानी में रखती है। सुधा नई नई शादी के हसीन पल दिल में संजो ही रही थी कि अचानक रडार स्क्रीन से शौर्य का जहाज़ गायब हो जाता है। सुधा हड़बड़ा जाती है और शौर्य के जहाज़ को कई बार पुकार लगाती है। शौर्य के जहाज से संपर्क टूट जाता है। न कोई आवाज़ आती है, न जाती है। तमाम कोशिशों और कड़ी मशक्कत के बावजूद भी शौर्य का कोई निशान नहीं मिलता। सुधा की आँखों से आँसू छलकने लगते हैं। खुद को जैसे तैसे संभालती है और घर पर खबर करती है। उसकी माँ यह ख़बर सुनकर सदमें में चली जाती है और फ़ोन रखते ही दिल का दौरा पड़ जाता है, बच नहीं पाती । यहाँ सुधा बदहवास सी हरसूं हाथ पाँव मारती है। खोजबीन के वास्ते सेना के खोजी दस्ते पहाड़ियों में शौर्य के जहाज़ को ढूंढने की कोशिश करते हैं, मगर घने बादल और जंगल के चलते कुछ हाथ नहीं लगता। कोई आला अफ़सर कहता है कि हो सकता है सरहद पार कर चीन में चला गया हो, उन्होंने बंदी बना लिया हो। कोई कहता है नहीं, ऊंची पहाड़ियाँ है बारह हजार फ़ीट ऊँची, टकरा के घाटी में गिर सकता है। सुधा की आँखों के आगे अंधेरा छाने लगता है, वो खुद को संभाल कर अपने अफ़सर से खुद खोज पर जाने की माँग करती है। आख़िरी वक़्त तक जहाज़ रडार स्क्रीन पर उसी की नज़र में था और वो खुद खोज के लिए एक काबिल अफ़सर है । मंज़ूरी मिलने पर एक छोटी सी टुकड़ी बना कर निकल जाती है शौर्य के जहाज़ को खोजने।
खोजते खोजते शाम होने लगती है, अंधेरा बिख़रने लगता है। ऐसी जगहों पर न तो घनी आबादी कि कोई कुछ बता सके और न ही किसी तरह की वैज्ञानिक मदद। पहाड़ों पर जब घुप्प अँधेरा छाता है तो लगता है पहाड़ निग़लने पर आमादा हैं। मेचुका से पहले पाली की पहाड़ियों के पास कुछ हल्की रोशनी दिखाई दी । सब वहाँ पहुँचे तो देखा जहाज़ का टूटा हुआ मलबा जल रहा है, आधा जहाज़ ऊपर पेड़ पर टंगा है । सेना-कर्मी की टुकड़ी हरकत में आ गयी। शौर्य का बदन मलबे से दूर ज़मीन पर पड़ा था । जहाज़ किसी झोंपडी पे गिरा मालूम हुआ । इक्का दुक्का की आबादी वाली जगह में झोपड़ी लाज़मी है, मगर कोई नज़र न आया झोंपडी के अंदर । शौर्य बेहोश था और बहुत खून बह चुका था, जहाज़ से छटक कर गिरने की वजह से रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट लगी थी मगर साँसें चल रही थी। क्रैश में एक और ज़िंदा बचा मगर बेहद नासाज़ हालात में बाकी तो बस कफ़नों में टूटी उम्मीदें लिपटी थीं।
अचानक किवाड़ खुली तो सुधा होश में आ गई। उसे एहसास ही नहीं हुआ कि उसकी सिसकियाँ सुनकर समर्थ अंदर आया था। समर्थ ने सुधा से माफ़ी माँगी और बड़े बचपने से बोला, “मुझे मालूम है आप पापा की वजह से मुझे नहीं भेज रही हो न । मगर इतना संभल कर रहने पर भी आपने आज तक सब खोया ही खोया है, अपनी शादीशुदा ज़िंदगी, अपनी वर्दी, अपने घरवाले सब कुछ… क्या पाया माँ?”
सुधा फूट-फूट कर रोने लगी, उसने समर्थ को अपने पास खींचकर सीने से लगा लिया । समर्थ ने भी अपनी माँ को ऐसे पकड़ा जैसे कभी पल भर को भी दूर न होगा। सुधा की आँखों में एक बड़ा सवाल था कि वो ऐसे ही समर्थ को हमेशा अपने पास अपना बना कर रखे या सच बता कर पराया कर दे कि जहाज़ के क्रैश के बाद वो वहाँ से सिर्फ़ शौर्य को ही उठाकर नहीं लायी बल्कि झोंपडी में बचे एक अधमरे दो-महीने के बच्चे को भी साथ ले आयी थी। सुधा ने अपनी आँखें बंद करलीं, दफ़्न फ़ौजी के अंदर एक माँ अब भी ज़िंदा थी ।
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ⓒ Prashant Bebaar 2019