सुनो, ज़रा ठहर के आना

जो इक वादा था तुमसे,

फ़िज़ा में खिलखिलाने का
कहकशाँ में डूब जाने का
जूड़े में तुम्हारे चाँद टिकाने का
उगते सूरज को सीने से लगाने का

जानां इस ख़्वाहिश में, थोड़ा वक़्त लगेगा
गुमाँ की आज़माइश में थोड़ा वक़्त लगेगा

कि ये दुनिया, ये मंज़र, ये शहरों में बंजर
अभी महफूज़ नहीं हसीं ख़्वाबों के लिए
कि, सड़क पे ख़ून के थक्के अभी सूखे नहीं हैं
सरिया लिए हाथ अब किताबों के भूखे नहीं हैं
मज़हबी टुकड़े पे पलते सायों को अभी
मुल्क में ‘टुकड़े-टुकड़े’ चलाने से फ़ुर्सत नहीं है

कि अभी तो नस्ल को साबित है करना
रहने को ज़िंदा अब ज़रूरी है डरना
कि कानून के मानी अभी बदल रहे हैं
हुक्मरां को इंक़लाबी अभी खल रहे हैं

मुझे मालूम है बड़ा मन था तुम्हारा,

जाड़े में, कुल्फ़ी का लुत्फ़ उठाने का
वादी में, कहवा के दो कप लड़ाने का
लालकिले पे बाँह फैलाने का, और
‘डल’ की झरझर में डूब जाने का

मगर जानां, अभी यहाँ,
तेल की खदानों पे मिसाइलों के घेरे हैं
बड़े काले से रोज़ यहाँ उठते सवेरे हैं
कुछ अंदर के कीड़े सरहद कुतर रहे हैं
बड़े-बड़े चेहरों के चेहरे अभी उतर रहे हैं

और वो जो वादा था तुमसे कि,
तुम्हारी हथेली पे अपनी ऊँगली उगाकर
तुम्हारे बालों में ग़ुलाबी से फूल सजाकर
चलेंगे किनारे से मीलों के फ़ेरे
देखेंगे तोता-ओ-मैना-ओ-बटेरे

इन बातों की सूरत अभी मुमकिन नहीं है
जीना न पूछो, हाँ मरना मुश्किल नहीं है
अभी स्कैण्डल में साँसों की इक चीख़ दबी है
उस लड़की की कैंडल-मार्च अभी रुकी नहीं है

अभी आब-ओ-दाने के भाव बहुत हैं
ढकी-ओढ़ी इस जनता के घाव बहुत हैं
कि अभी सरज़मीं पे शोले भभक रहे हैं
वर्दी से ख़ून के कतरे अभी टपक रहे हैं

वो रातों का वादा, वो बुलाती सदायें
खिड़की पे तुम्हारी, मल्हार गाती हवाएँ
अभी इन बातों में थोड़ा सा वक़्त लगेगा
अच्छे दिन का वो वादा ज़रा लंबा चलेगा
जज साहब ये बोले की मुश्किल घड़ी है
कुछ ज़ुल्मी सिफ़त, कुछ सियासी कड़ी है

अभी कुफ़लों में कैद हैं लफ़्ज़ हमारे
मिटाने को अक्स, हो रहे हैं इशारे
वो इंसानियत की उसूलों-निगारी
अभी मुमकिन नहीं, अभी मुमकिन नहीं

सुनो तुम जानां, वो सारे ख़्वाब छुपाना
ज़र्रे ज़र्रे को सारी ये बातें बताना
हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना
हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना।

— प्रशान्त ‘बेबार’

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