बड़ी बेआबरू सी है ये ज़िन्दगी,
कि जीने का सलीका भी नहीं जानती
रहती है ख़ुद क़िताबों में क़ैद
हमें अपना एक सफ़हा तक नहीं मानती
अब कहाँ वो नीम के आग़ोश में
निम्बोरी से किस्से हुआ करते हैं
अब तो एक ही ज़िन्दगी के मानो
तमाम हिस्से हुआ करते हैं
किसी हिस्से में जीते हैं,
तो किसी में पल-पल मरते हैं
ख़ून के कतरों की माला है
जो हर रोज़ हम पिरोते हैं
वो कहते हैं कि काफ़िर हूं मैं
मुझे मज़हब नज़र नहीं आता
न जाने कैसे इंसा हैं वो
जो उन्हें इंसा नज़र नहीं आता
वैसे, किफ़ायत का ज़माना है
सलीके से इश्क़ कीजे
जो दिल में कैद है सफ़ीना
उसे कैद ही रहने दीजे,
बड़ी बे-आबरू सी है ये ज़िंदगी ।