जो बात तमाम सफ़र बताई न गयी
वो बात आईने से फिर छुपाई न गयी
तेरी ख़ुशबू भी बिखरी रही, आईने पे
नक्श उकेरे तमाम पर उठाई न गयी
ऐसे घिर गए हैं आईनों के शहर में
बस अपनी ही सूरत दिखाई न गयी
यूँ नींद में कितने सवेरे, उठाये हमने
बस इक वो रात हमसे जगाई न गयी
ख़ुद को ढूंढने जब क़ैद में चल पड़े
फिर कोई सदा बाहर सुनाई न गयी
बहुत चाहा ‘बेबार’, कुछ याद न करें
आईने पे लगी बिंदी पर भुलाई न गयी