माँ

गर हारूँ तो दुखी, जीतूँ तो ख़ुशी से रोती है
एक अकेली हिम्मत बाँधे, माँ तो माँ होती है

दुनिया के सारे रिश्तों ने, जब जब मुँह फेरा है
तब तब उँगली थामे, एक वही बस माँ होती है

कोई तोहफ़ा कोई महल, इतना उसको भाये न
ज़रा सा बच्चे हँसदें तो, इतने में ख़ुश माँ होती है

कोई तो अब रुलाये मुझे, आँसू ही छलका दे
रोती हुई औलादों से, दूर भला कब माँ होती है

जीवन है ये रात अनोखी, अंधेरा घेरे रहता है
रौशन करती चाँदनी, मुझमें बिखरी माँ होती है

मेरे जैसे लाखों मिलेंगे, तुम जैसे भी हज़ारों हैं
सब जग ढूँढके जाना माँ के जैसी बस माँ होती है

चार दिन में तंग हुए, समझदारों का बजट हिला
नौ माह हिसाब न मांगा ऐसी नासमझ माँ होती है

कैसी है, क्या है माँ, हर दम जो पीछे पड़ती है
जिसने खोया उससे पूछो आख़िर कैसी माँ होती है

~प्रशान्त~ ‘मंजू’ ~बेबार~

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