दीनू ने जो भी बोया
जो भी नुकाया
सब एक गठरी में बाँध
कंधे पे रख लाया है
भरी दुपहरी बाँधी है
मूसल बूँदों का है हिसाब
दो आने को चार आना बनाने
अपनी ज़मीं गठरी में बाँधी है
फिर भी गठरी हल्की पड़ी
तो उड़स दिए सुहाग के ज़ेवर
गठरी जब मेज पे रक्खी
तो गठरी से ख़ूँ रिसता है
खेत का कतरा कतरा
साँसों में होकर बहता है
फिर भी दीनू ने
ख़ुद गले में हल बाँधकर
हर दफ़्तर के
सब अफ़सरों का
मुँह मीठा करवाया है
यहाँ सबके मुँह कड़वे हैं
जब तक कोई मीठा न कराए
हलक से लफ़्ज़ नहीं उतरता है
बंजर दीनू अब गया वक़्त है
वो फिर नहीं गुजरता है ।